जिंदगी इस कदर है खामोश क्यूँ
वस्ल नहीं कोई प्यास नहीं
कहने को तो है बहुत कुछ मगर
आज वो फकत अहसास नहीं
नवाज़िश नहीं मयस्सर खुदा
रही क्या इस ज़माने में
हर सहर हूँ ढूंढता मैं
इक मोजिजा तेरे ख़ज़ाने में
रिश्तो के दरमियाँ क्या फसे
कभी तुम हँसो कभी हम हँसे
रुखसत तो ज़माने से होना है सबको
तुम ही तुम जिए तो क्या जिए
वस्ल - मिलाप
नवाज़िश - कृपा, मेहरबानी
मयस्सर - उपलब्ध होना
सहर - प्रातःकाल, सवेरा
मोजिजा - अलौकिक चमत्कार